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कविता

औरत और भारत

अनुकृति शर्मा


तू ही आफत की पुतली है
नाक कटाने कुल की जन्मी
मारा नहीं कोख में तुझको
जाया पोसा, बरती नरमी।
हवा चली और उड़ी ओढ़नी
तेरी ही तो बेशर्मी है
पानी बरसा, भीगा कुरता
तेरे तन फूटी गर्मी है।
कह मत, सुन मत, हँस मत, नत हो
अंग सँभाल, ढाँप ले तन को
तू ही तो ललचाती आई
भोले-भाले नर के मन को।
गली-मुहल्ले छेड़ा, छुआ
तूने नजर उठाई होगी
ट्रेन बसों में झपटा, लपका
तेरी ही रुसवाई होगी।
झपटा जब वो क्यों चिल्लाई?
करने देती जो भी करता
झपटा जब तो ना चिल्लाई
अगर बरजती, क्योंकर करता?
होंठ रँगे और बाल कटाए
तूने हर मर्यादा तोड़
ऊँचे कपड़े, ऊँची ऐड़ी
क्यों खोली तूने हर बेड़ी?
कहे जो तू सो है कुतर्क
तू सदा गलत, हम सदा सही
तूने लाँघी लक्ष्मण-रेखा
रावण का कोई दोष नहीं।
तू हरजाई, तू ही कुलटा
उकसाती, भरमाती आई
शासन, ताड़न, दमन, दंड सब
सदियों से ही पाती आई।
जा, घर जा, मर जा, जल जा
नहीं तेरी सुनवाई होगी
पुरुषों की मर्दानगी सोना
तेरी जग में हँसाई होगी।
रो, पछाड़ें खा, सर धुन ले
क्यों जन्मी तू बन कर औरत
तेरे ही पापों का फल है
मिला अभागन तुझको भारत।
 


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